बचपन में रंग-बिरंगी डाक टिकट बड़ी लुभाती थीं। मन चाहता कि भांति-भांति के डाक टिकट इकट्ठा करूं परंतु, सुदूर गांव में कहां से आते इकट्ठा करने लायक टिकट ? मन मायूस हुआ।
पिताजी के सामने भावनाएं प्रकट हुई, घर में आने वाले हरेक पत्र को फिर से देखा गया, परंतु छपे लिफाफे ज्यादा मात्रा में और टिकट चस्पा कम। पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय सबसे अधिक। पिताजी ने आखिर तोड़ निकाला, अपने गांव में माचिस खूब मिल सकती हैं, तुम उनका संग्रह करो। भटकते मन को जैसे सब कुछ मिल गया। बस यहीं से माचिस-संग्रह की शुरूआत हुई।
बड़ी बहनें व बड़े भाई गांव की हर गली से गुजरते वक्त और सतर्क रहने लगे, उनकी निगाहें सचेत करती रहती। और मैं, मैं तो पूरे गांव की गलियों की रोजाना टोह लेने लगा। एक-एक करके मेरा संग्रह बनता गया।
मेरा कभी रिश्तेदारी और शहर जाना होता तो सबसे पहले माचिस ही ध्यान में आती। न जाने कहां-कहां से माचिस ले आता, अब सोचता हूं तो उस जुनून को सलाम करने का मन चाहता है।
यह संग्रह वर्षों की मेहनत है, तभी तो इतने वर्षों बाद भी मेरे पास सुरक्षित है। हां, इतना जरूर है कि अनदेखी रही और संग्रह का बड़ा हिस्सा बिखर गया। फिर भी जितना है धीरे-धीरे आपके सामने पेश होता जाएगा।